“वाह री महंगाई”
वाह री महंगाई, मुसीबत तुने गजब है ढाई,
जब-जब आती मेरे देश में, आती सबको खूब रुलाई,
पहले हम सब खाते फल थे, अब तो दूध में भी नहीं मलाई,
पहनते कपड़े नए नए थे, अब तो सालों नहीं बनवाई
वाह री महंगाई, मुसीबत तुने गजब है ढाई
खाना बनता स्वादिष्ट पहले था, जब भी माँ ने पकवान बनाई,
प्याज, टमाटर के दाम सुनकर, हम सब की तो आँख भर आई
वाह री महंगाई, मुसीबत तुने गजब है ढाई
याद है मुझको हर त्यौहार पर, मिलती थी हमें खूब मिठाई,
अब तो सपनों ही में आती वो, तूने जबसे है दस्तक है लगाई,
वाह री महंगाई, मुसीबत तुने गजब है ढाई
क्यों आती है जब देखो तब, सोती क्यों नहीं ओढ़ रजाई,
लक्ष्मी पूजन के शुभ अवसर पे तो, हंसने दे मुझे मेरी ताई,
वाह री महंगाई, मुसीबत तुने गजब है ढाई
बिजली-पानी-तेल-सब्ज़ियाँ, फल-कपड़े और दूध-मलाई...
मेरे लिए सब ख़ाक हो गए, जबसे तूने है आग लगायी,
वाह री महंगाई, मुसीबत तुने गजब है ढाई
क्यों नहीं जाती यहाँ से तू, बस बहुत तुने है तक़लीफ़ बढ़ाई,
दूर हो जा मेरी नज़रों से, अब बजने दे मेरी खुशियों की शहनाई,
वाह री ज़ालिम महंगाई, मुसीबत तुने गजब है ढाई…
Mantosh Singh.. Nov 2013' (Prepared for रूहिन रघूवंशी for School Magazine having topic of महंगाई)
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